ⓘ उल्लाला
उल्लाला छन्द हिन्दी छन्दशास्त्र का एक पुरातन छन्द है। इसकी स्वतंत्र रूप से कम ही रचना की गई है। वीरगाथा काल में उल्लाला तथा रोले को मिलाकर छप्पय की रचना किये जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है। इसका एक उदाहरण निम्न है:-
यों किधर जा रहे हैं बिखर,कुछ बनता इससे कहीं। संगठित ऐटमी रूप धर,शक्ति पूर्ण जीतो मही।।1. ग्रन्थों में उल्लेख
अधिकांशतः छप्पय में रोले के चार चरणों के पश्चात् उल्लाला के दो दल रचे जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है। जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छन्द प्रभाकर तथा ओमप्रकाश ओंकार द्वारा रचित छन्द क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छन्द हैं। नारायण दास द्वारा लिखित हिन्दी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के दो रूप कहा गया है।
2. चरण तथा मात्राएँ
उल्लाला 13-13 मात्राओं के 2 सम चरणों का छन्द है। उल्लाल 15-13 मात्राओं का विषम चरणी छन्द है, जिसे हेमचंद्राचार्य ने कर्पूर नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छन्द के दो भेद मानते हैं।
भानु के अनुसार-
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।सेवहु नित हरि हर चरण, गुगण गावहु हो शरण।।
अर्थात् उल्लाला में 13 मात्राएँ होती हैं। दस मात्राओं के अंतर पर अर्थात् 11 वीं मात्रा एक लघु होना अच्छा है।
दोहे के चार विषम चरणों से उल्लाला छन्द बनता है। यह 13-13 मात्राओं का समपाद मात्रिक छन्द है, जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन 8+3+2 है। अंत में एक गुरु या 2 लघु का विधान है।
3. लक्षण
उल्लाला के लक्षण निम्नलिखित हैं-
दो पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के 4 चरण सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु चरण के अंत में यति विराम अर्थात् सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए चरणान्त में एक गुरु या 2 लघु हों सम चरणों 2, 4 के अंत में समान तुक हो सामान्यतः सम चरणों के अंत में एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक-सी मात्रा हो। उदाहरण
सम चरण तुकान्तता -
प्रेम नेम हित चतुरई, जे न बिचारत नेकु मन। सपनेहुँ न विलम्बियै, छिन तिग हिग आनन्द घन।।
विषम-सम चरण तुकान्तता -
उर्ध्व ब्रह्म के गर्भ में, संभव के संदर्भ में। वृत्ति चराचर व्यापती, काल-क्षितिज तक मापती।।
दूसरे प्रकार के उल्लाला छन्द का उदाहरण, जिसके पद 15-13 की यति पर होती है। यानि विषम चरण में 15 मात्राएँ तथा सम चरण में 13 मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार के उल्लाला में तुकान्तता सम चरणों पर ही स्वीकार्य है-
कै शोणित कलित कपाल यह, किल कपालिका काल को। यह ललित लाल केधौं लसत, दिग्भामिनि के भाल को।। अति अमल ज्योति नारायणी, कहि केशव बुड़ि जाहि बरु। भृगुनन्द सँभारु कुठार मैं, कियौ सराअन युक्त शरु।।उपरोक्त पदों को ध्यान से देखा जाय तो प्रत्येक विषम चरण के प्रारम्भ में एक गुरु या दो लघु हैं, जिनके बाद का शाब्दिक विन्यास तेरह मात्राओं की तरह ही है। उसी अनुरूप पाठ का प्रवाह भी है। इस कारण, विषम चरण में पहले दो मात्राओं के बाद स्वयं एक यति बन जाती है और आगे का पाठ दोहा के विषम चरण की तरह ही होता चला जाता है। उल्लाला छन्द का एक और नाम चंद्रमणि भी है।
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